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परि॑ ते॒ धन्व॑नो हे॒तिर॒स्मान् वृ॑णक्तु वि॒श्वतः॑। अथो॒ यऽइ॑षु॒धिस्तवा॒रेऽअ॒स्मन्निधे॑हि॒ तम् ॥१२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

परि॑। ते॒। धन्व॑नः। हे॒तिः। अ॒स्मान्। वृ॒ण॒क्तु॒। वि॒श्वतः॑। अथो॒ऽइत्यथो॑। यः। इ॒षु॒धिरिती॑षु॒ऽधिः। तव॑। आ॒रे। अ॒स्मत्। नि। धे॒हि॒। तम् ॥१२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:16» मन्त्र:12


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजा और प्रजा के पुरुषों को परस्पर क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सेनापति ! जो (ते) आप के (धन्वनः) धनुष् की (हेतिः) गति है, उस से (अस्मान्) हम लोगों को (विश्वतः) सब ओर से (आरे) दूर में आप (परिवृणक्तु) त्यागिये। (अथो) इस के पश्चात् (यः) जो (तव) आप का (इषुधिः) बाण रखने का घर अर्थात् तर्कस है (तम्) उस को (अस्मत्) हमारे समीप से (नि, धेहि) निरन्तर धारण कीजिये ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - राज और प्रजाजनों को चाहिये कि युद्ध और शस्त्रों का अभ्यास कर के शस्त्रादि सामग्री सदा अपने समीप रक्खें। उन सामग्रियों से एक-दूसरे की रक्षा और सुख की उन्नति करें ॥१२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजप्रजाजनैरितरेतरं किं कार्यमित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(परि) (ते) तव (धन्वनः) (हेतिः) गतिः (अस्मान्) (वृणक्तु) परित्यजतु (विश्वतः) (अथो) आनन्तर्ये (यः) (इषुधिः) इषवो धीयन्ते यस्मिन् सः (तव) (आरे) समीपे दूरे वा (अस्मत्) अस्माकं सकाशात् (नि) (धेहि) नितरां धर (तम्) ॥१२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सेनापते ! या ते धन्वनो हेतिरस्ति, तयाऽस्मान् विश्वत आरे भवान् परिवृणक्तु। अथो यस्तवेषुधिरस्ति तमस्मच्चारे निधेहि ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - राजप्रजाजनैर्युद्धशस्त्राभ्यासं कृत्वा शस्त्रादिसामग्र्यः सदा समीपे रक्षणीयाः। ताभिः परस्परस्य रक्षा कार्य्या सुखं चोन्नेयम् ॥१२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजा व प्रजा यांनी युद्ध व शस्त्रे यांचा अभ्यास करावा व शस्त्रे इत्यादी साहित्य नेहमी जवळ बाळगावे. त्या सामानाने परस्परांचे रक्षण करून सुखी व्हावे.